Article Detail

 

अपने देश में इन दिनों एकल परिवार ही अधिक नजर आ रहे हैं। कभी कहीं दूर आजीविका पाने की मजबूरी इसका कारण होती है तो कभी अपनों की बातें हस्तक्षेप नजर आने के कारण लोग अलग परिवार बसा लेते हैं। एकल परिवारों में भले ही मनपसंद जीवन जीने की स्वतंत्रता हासिल हो जाती हो पर पर इन परिवारों में रिश्तों की पहचान खत्म हो जाती है। च्चे रिश्तों के अहसास को नहीं पहचान पाते। उन्हें नहीं पता होता कि दादा-दादी का प्यार कैसा होता है और यह माता-पिता के प्यार की मिठास से कुछ अलग होता है। माता-पिता की डांट खाने के बाद दादी के आँचल में छुपना या दादा की अंगुलियाँ पकड़ क जीवन में आगे बढ़ना बाल्यावस्था को कैसा संरक्षण देता है। बुआ का लाड़ और बुआ से तकरार, इन खट्टे-मीठे अनुभव को जाने बिना रिश्तों को पहचानना मुश्किल होता है। इसी प्रकार ताऊ-ताई, चाचा-चाची या अन्य रिश्ते क्या होते हैं, इससे भी बच्चे वाकिफ नहीं हो पाते। एकल परिवार की स्थिति तब और भी सोचनीय हो जाती है जब परिवार में माता- पिता दोनों नौकरी-पेशा हों। ऐसी स्थिति में बच्चों को उनका प्यार भी नाप- तौल कर मिलता है। उदारीकण और निजी कंपनियों के इस दौर में अधिकांश नौकरी-पेशा अभिभावक सुबह सबेरे घर से निकलते हैं तो देर शाम बाद ही वापस घर की ओर रुख कर पाते हैं। ऐसे में स्कूल से लौटने के बाद बच्चों को दिन भर की बातें सुनाने के लिए कोई प्यार भरी गोद नहीं मिलती। वे नौकरों या आया के भरोसे रहते हैं या फिर टी.वी. और कम्प्यूटर पर आँखें गड़ाए चुपचाप अभिभावकों के लौटने का इंतजार करते हैं। ऐसे बच्चों के व्यक्तित्व का समुचित विकास नहीं हो पाता। उनमें संस्कारों का विकास नहीं हो पाता। कई बार तो वे समाज विरोधी हरकतें भी करने लगते हैं। दूसरी तरफ संयुक्त परिवार में माता-पिता अगर काम से न भी लौटें तो स्कूल से लौटे बच्चों को मनुहार से खिलाने वाले कई-कई लोग होते हैं। दादी, बुआ, ताई, चाची सभी को चिंता रहती है कि उसने कपड़े बदले या नहीं। आज बच्चों के स्कूल में क्या हुआ, यह दिलचस्पी से सुनने वालों में बड़ों की दुनिया के अलावा उनके हमउम्र चचेरे-फुफेरे बच्चों की भी फौज होती है। फिर घर में सन्नाटा या टी.वी. की आवाज नहीं बल्कि बच्चों की किलकारियाँ गूंजती हैं। हमउम्र बच्चों और दादा-दादी, चाचा-चाची के कारण बच्चों को जीवन की सही राह और सही सलाह भी सहजता से उपलब्ध हो जाती है और वे राह भटकने से भी बच जाते हैं। कई बार बच्चे माता-पिता को दिल की बात नहीं बता पाते वे दादा-दादी या चाचा-चाची के साथ खुल जाते हैं। ऐसे में उन्हें घर पर ही ऐसा साथी मिल जाता है, जो उलझन के दौर में सही सलाह दे। संयुक्त परिवार एक ऐसी पाठशाला है जिसमें बच्चों के हर पहलू पर ध्यान दिया जाता है। परिवार में रहने वाला हर सदस्य एक-दूसरे की खुशियों का ध्यान रखता है। बच्चा हर तरह से खुद को सुरक्षित महसूस करता है। साथ ही वह अपने अधिकारों व कर्तव्यों से भी अत्यंत सहजता से परिचित हो जाता है। जाहिर है रिश्तों की सुगन्ध को बचाने के लिए हमें संयुक्त परिवारों के विघटन को यथा संभव रोकना होगा। भौगोलिक तौर पर अलग रहना यदि जिन्दगी की जरूरत हो तो भी दिल के तार आपस में जुड़े रहें, इतना प्रयास तो हमें करना 

ही चाहिए।